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सच्चा दान

(मरकुस 12:41-44)

21 यीशु ने आँखें उठा कर देखा कि धनी लोग दान पात्र में अपनी अपनी भेंट डाल रहे हैं। तभी उसने एक गरीब विधवा को उसमें ताँबे के दो छोटे सिक्के डालते हुए देखा। उसने कहा, “मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कि दूसरे सभी लोगों से इस गरीब विधवा ने अधिक दान दिया है। यह मैं इसलिये कहता हूँ क्योंकि इन सब ही लोगों ने अपने उस धन में से जिसकी उन्हें आवश्यकता नहीं थी, दान दिया था किन्तु उसने गरीब होते हुए भी जीवित रहने के लिए जो कुछ उसके पास था, सब कुछ दे डाला।”

मन्दिर का विनाश

(मत्ती 24:1-14; मरकुस 13:1-13)

कुछ लोग मन्दिर के विषय में चर्चा कर रहे थे कि वह सुन्दर पत्थरों और परमेश्वर को अर्पित की गयी मनौती की भेंटों से कैसे सजाया गया है।

तभी यीशु ने कहा, “ऐसा समय आयेगा जब, ये जो कुछ तुम देख रहे हो, उसमें एक पत्थर दूसरे पत्थर पर टिका नहीं रह पायेगा। वे सभी ढहा दिये जायेंगे।”

वे उससे पूछते हुए बोले, “गुरु, ये बातें कब होंगी? और ये बातें जो होने वाली हैं, उसके क्या संकेत होंगे?”

यीशु ने कहा, “सावधान रहो, कहीं कोई तुम्हें छल न ले। क्योंकि मेरे नाम से बहुत से लोग आयेंगे और कहेंगे, ‘वह मैं हूँ’ और ‘समय आ पहुँचा है।’ उनके पीछे मत जाना। परन्तु जब तुम युद्धों और दंगों की चर्चा सुनो तो डरना मत क्योंकि ये बातें तो पहले घटेंगी ही। और उनका अन्त तुरंत नहीं होगा।”

10 उसने उनसे फिर कहा, “एक जाति दूसरी जाति के विरोध में खड़ी होगी और एक राज्य दूसरे राज्य के विरोध में। 11 बड़े-बड़े भूचाल आयेंगे और अनेक स्थानों पर अकाल पड़ेंगे और महामारियाँ होंगी। आकाश में भयानक घटनाएँ घटेंगी और महान संकेत प्रकट होंगे।

12 “किन्तु इन बातों के घटने से पहले वे तुम्हें बंदी बना लेंगे और तुम्हें यातनाएँ देंगे। वे तुम पर अभियोग चलाने के लिये तुम्हें यहूदी आराधनालयों को सौंप देंगे और फिर तुम्हें बन्दीगृहों में भेज दिया जायेगा। और फिर मेरे नाम के कारण वे तुम्हें राजाओं और राज्यपालों के सामने ले जायेंगे। 13 इससे तुम्हें मेरे विषय में साक्षी देने का अवसर मिलेगा। 14 इसलिये पहले से ही इसकी चिंता न करने का निश्चय कर लो कि अपना बचाव तुम कैसे करोगे। 15 क्योंकि मैं तुम्हें ऐसी बुद्धि और ऐसे शब्द दूँगा कि तुम्हारा कोई भी विरोधी तुम्हारा सामना और तुम्हारा खण्डन नहीं कर सकेगा। 16 किन्तु तुम्हारे माता-पिता, भाई बन्धु, सम्बन्धी और मित्र ही तुम्हें धोखे से पकड़वायेंगे और तुममें से कुछ को तो मरवा ही डालेंगे। 17 मेरे कारण सब तुमसे बैर करेंगे। 18 किन्तु तुम्हारे सिर का एक बाल तक बाँका नहीं होगा। 19 तुम्हारी सहनशीलता, तुम्हारे प्राणों की रक्षा करेगी।

यरूशलेम का नाश

(मत्ती 24:15-21; मरकुस 13:14-19)

20 “अब देखो जब यरूशलेम को तुम सेनाओं से घिरा देखो तब समझ लेना कि उसका तहस नहस हो जाना निकट है। 21 तब तो जो यहूदिया में हों, उन्हें चाहिये कि वे पहाड़ों पर भाग जायें और वे जो नगर के भीतर हों, बाहर निकल आयें और वे जो गाँवों में हों उन्हें नगर में नहीं जाना चाहिये। 22 क्योंकि वे दिन दण्ड देने के होंगे। ताकि जो लिखी गयी हैं, वे सभी बातें पूरी हों। 23 उन स्त्रियों के लिये, जो गर्भवती होंगी और उनके लिये जो दूध पिलाती होंगी, वे दिन कितने भयानक होंगे। क्योंकि उन दिनों इस धरती पर बहुत बड़ी विपत्ति आयेगी और इन लोगों पर परमेश्वर का क्रोध होगा। 24 वे तलवार की धार से गिरा दिये जायेंगे। और बंदी बना कर सब देशों में पहुँचा दिये जायेंगे और यरूशलेम गैंर यहूदियों के पैरों तले तब तक रौंदा जायेगा जब तक कि ग़ैर यहूदियों का समय पूरा नहीं हो जाता।

डरो मत

(मत्ती 24:29-31; मरकुस 13:24-27)

25 “सूरज, चाँद और तारों में संकेत प्रकट होंगे और धरती पर की सभी जातियों पर विपत्तियाँ आयेंगी और वे सागर की उथल-पुथल से घबरा उठेंगे। 26 लोग डर और संसार पर आने वाली विपदाओं के डर से मूर्छित हो जायेंगे क्योंकि स्वर्गिक शक्तियाँ हिलाई जायेंगी। 27 और तभी वे मनुष्य के पुत्र को अपनी शक्ति और महान् महिमा के साथ एक बादल में आते हुए देखेंगे। 28 अब देखो, ये बातें जब घटने लगें तो तुम खड़े होकर अपने सिर ऊपर उठा लेना। क्योंकि तुम्हारा छुटकारा निकट आ रहा होगा।”

मेरा वचन अमर है

(मत्ती 24:32-35; मरकुस 13:28-31)

29 फिर उसने उनसे एक दृष्टान्त-कथा कही: “और सभी पेड़ों तथा अंजीर के पेड़ को देखो। 30 उन में जैसे ही कोंपले फूटती हैं, तुम अपने आप जान जाते हो कि गर्मी की ऋतु बस आ ही पहुँची है। 31 वैसे ही तुम जब इन बातों को घटते देखो तो जान लेना कि परमेश्वर का राज्य निकट है।

32 “मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कि जब तक ये सब बातें घट नहीं लेतीं, इस पीढ़ी का अंत नहीं होगा। 33 धरती और आकाश नष्ट हो जाएँगे, पर मेरा वचन सदा अटल रहेगा।

सदा तैयार रहो

34 “अपना ध्यान रखो, ताकि तुम्हारे मन कहीं डट कर पीने पिलाने और सांसारिक चिंताओं से जड़ न हो जायें। और वह दिन एक फंदे की तरह तुम पर अचानक न आ पड़े। 35 निश्चय ही वह इस समूची धरती पर रहने वालों पर ऐसे ही आ गिरेगा। 36 हर क्षण सतर्क रहो, और प्रार्थना करो कि तुम्हें उन सभी बातों से, जो घटने वाली हैं, बचने की शक्ति प्राप्त हो। और आत्म-विश्वास के साथ मनुष्य के पुत्र के सामने खड़े हो सको।”

37 प्रतिदिन वह मन्दिर में उपदेश दिया करता था किन्तु, रात बिताने के लिए वह हर साँझ जैतून नामक पहाड़ी पर चला जाता था। 38 सभी लोग भोर को तड़के उठते ताकि मन्दिर में उसके पास जाकर, उसे सुनें।

यीशु की हत्या का षड़यन्त्र

(मत्ती 26:1-5, 14-16; मरकुस 14:1-2, 10-11; यूहन्ना 11:45-53)

22 अब फ़सह नाम का बिना ख़मीर की रोटी का पर्व आने को था। उधर प्रमुख याजक तथा यहूदी धर्मशास्त्री, क्योंकि लोगों से डरते थे इसलिये किसी ऐसे रास्ते की ताक में थे जिससे वे यीशु को मार डालें।

यहूदा का षड़यन्त्र

(मत्ती 26:14-16; मरकुस 14:10-11)

फिर इस्करियोती कहलाने वाले उस यहूदा में, जो उन बारहों में से एक था, शैतान आ समाया। वह प्रमुख याजकों और अधिकारियों के पास गया और उनसे यीशु को वह कैसे पकड़वा सकता है, इस बारे में बातचीत की। वे बहुत प्रसन्न हुए और इसके लिये उसे धन देने को सहमत हो गये। वह भी राज़ी हो गया और वह ऐसे अवसर की ताक में रहने लगा जब भीड़-भाड़ न हो और वह उसे उनके हाथों सौंप दे।

फ़सह की तैयारी

(मत्ती 26:17-25; मरकुस 14:12-21; यूहन्ना 13:21-30)

फिर बिना ख़मीर की रोटी का वह दिन आया जब फ़सह के मेमने की बली देनी होती है। सो उसने यह कहते हुए पतरस और यहून्ना को भेजा, “जाओ और हमारे लिये फ़सह का भोज तैयार करो ताकि हम उसे खा सकें।”

उन्होंने उससे पूछा, “तू हमसे उसकी तैयारी कहाँ चाहता है?”

उसने उनसे कहा, 10 “तुम जैसे ही नगर में प्रवेश करोगे तुम्हें पानी का घड़ा ले जाते हुए एक व्यक्ति मिलेगा, उसके पीछे हो लेना और जिस घर में वह जाये तुम भी चले जाना। 11 और घर के स्वामी से कहना, ‘गुरु ने तुझसे पूछा है कि वह अतिथि-कक्ष कहाँ है जहाँ मैं अपने शिष्यों के साथ फ़सह पर्व का भोजन कर सकूँ।’ 12 फिर वह व्यक्ति तुम्हें सीढ़ियों के ऊपर सजा-सजाया एक बड़ा कमरा दिखायेगा, वहीं तैयारी करना।”

13 वे चल पड़े और वैसा ही पाया जैसा उसने उन्हें बताया था। फिर उन्होंने फ़सह भोज तैयार किया।

प्रभु का अन्तिम भोज

(मत्ती 26:26-30; मरकुस 14:22-26; 1 कुरिन्थियों 11:23-25)

14 फिर वह घड़ी आय़ी जब यीशु अपने शिष्यों के साथ भोजन पर बैठा। 15 उसने उनसे कहा, “यातना उठाने से पहले यह फ़सह का भोजन तुम्हारे साथ करने की मेरी प्रबल इच्छा थी। 16 क्योंकि मैं तुमसे कहता हूँ कि जब तक परमेश्वर के राज्य में यह पूरा नहीं हो लेता तब तक मैं इसे दुबारा नहीं खाऊँगा।”

17 फिर उसने कटोरा उठाकर धन्यवाद दिया और कहा, “लो इसे आपस में बाँट लो। 18 क्योंकि मैं तुमसे कहता हूँ आज के बाद जब तक परमेश्वर का राज्य नहीं आ जाता मैं कोई भी दाखरस कभी नहीं पिऊँगा।”

19 फिर उसने थोड़ी रोटी ली और धन्यवाद दिया। उसने उसे तोड़ा और उन्हें देते हुए कहा, “यह मेरी देह है जो तुम्हारे लिये दी गयी है। मेरी याद में ऐसा ही करना।” 20 ऐसे ही जब वे भोजन कर चुके तो उसने कटोरा उठाया और कहा, “यह प्याला मेरे उस रक्त के रूप में एक नयी वाचा का प्रतीक है जिसे तुम्हारे लिए उँडेला गया है।”[a]

यीशु का विरोधी कौन होगा?

21 “किन्तु देखो, मुझे जो धोखे से पकड़वायेगा, उसका हाथ यहीं मेज़ पर मेरे साथ है। 22 क्योंकि मनुष्य का पुत्र तो मारा ही जायेगा जैसा कि सुनिश्चित है किन्तु धिक्कार है उस व्यक्ति को जिसके द्वारा वह पकड़वाया जाएगा।”

23 इस पर वे आपस में एक दूसरे से प्रश्न करने लगे, “उनमें से वह कौन हो सकता है जो ऐसा करने जा रहा है?”

सेवक बनों

24 फिर उनमें यह बात भी उठी कि उनमें से सबसे बड़ा किसे समझा जाये। 25 किन्तु यीशु ने उनसे कहा, “गैर यहूदियों के राजा उन पर प्रभुत्व रखते हैं और वे जो उन पर अधिकार का प्रयोग करते हैं, ‘स्वयं को लोगों का उपकारक’ कहलवाना चाहते हैं। 26 किन्तु तुम वैसै नहीं हो बल्कि तुममें तो सबसे बड़ा सबसे छोटे जैसा होना चाहिये और जो प्रमुख है उसे सेवक के समान होना चाहिए। 27 क्योंकि बड़ा कौन है: वह जो खाने की मेज़ पर बैठा है या वह जो उसे परोसता है? क्या वही नहीं जो मेज पर है किन्तु तुम्हारे बीच मैं वैसा हूँ जो परोसता है।

28 “किन्तु तुम वे हो जिन्होंने मेरी परिक्षाओं में मेरा साथ दिया है। 29 और मैं तुम्हे वैसे ही एक राज्य दे रहा हूँ जैसे मेरे परम पिता ने इसे मुझे दिया था। 30 ताकि मेरे राज्य में तुम मेरी मेज़ पर खाओ और पिओ और इस्राएल की बारहों जनजातियों का न्याय करते हुए सिंहासनों पर बैठो।

विश्वास बनाये रखो

(मत्ती 26:31-35; मरकुस 14:27-31; यूहन्ना 13:36-38)

31 “शमौन, हे शमौन, सुन, तुम सब को गेहूँ की तरह फटकने के लिए शैतान ने चुन लिया है। 32 किन्तु मैंने तुम्हारे लिये प्रार्थना की है कि तुम्हारा विश्वास न डगमगाये और जब तू वापस आये तो तेरे बंधुओं की शक्ति बढ़े।”

33 किन्तु शमौन ने उससे कहा, “हे प्रभु, मैं तेरे साथ जेल जाने और मरने तक को तैयार हूँ।”

34 फिर यीशु ने कहा, “पतरस, मैं तुझे बताता हूँ कि आज जब तक मुर्गा बाँग नहीं देगा तब तक तू तीन बार मना नहीं कर लेगा कि तू मुझे जानता है।”

यातना झेलने को तैयार रहो

35 फिर यीशु ने अपने शिष्यो से कहा, “मैंने तुम्हें जब बिना बटुए, बिना थैले या बिना चप्पलों के भेजा था तो क्या तुम्हें किसी वस्तु की कमी रही थी?”

उन्होंने कहा, “किसी वस्तु की नहीं।”

36 उसने उनसे कहा, “किन्तु अब जिस किसी के पास भी कोई बटुआ है, वह उसे ले ले और वह थैला भी ले चले। और जिसके पास भी तलवार न हो, वह अपना चोगा तक बेच कर उसे मोल ले ले। 37 क्योंकि मैं तुम्हें बताता हूँ कि शास्त्र का यह लिखा मुझ पर निश्चय ही पूरा होगा:

‘वह एक अपराधी समझा गया था।’(A)

हाँ मेरे सम्बन्ध में लिखी गयी यह बात पूरी होने पर आ रही है।”

38 वे बोले, “हे प्रभु, देख, यहाँ दो तलवारें हैं।”

इस पर उसने उनसे कहा, “बस बहुत है।”

प्रेरितों को प्रार्थना का आदेश

(मत्ती 26:36-46; मरकुस 14:32-42)

39-40 फिर वह वहाँ से उठ कर नित्य प्रति की तरह जैतून—पर्वत चला गया। और उसके शिष्य भी उसके पीछे पीछे हो लिये। वह जब उस स्थान पर पहुँचा तो उसने उनसे कहा, “प्रार्थना करो कि तुम्हें परीक्षा में न पड़ना पड़े।”

41 फिर वह किसी पत्थर को जितनी दूर तक फेंका जा सकता है, लगभग उनसे उतनी दूर अलग चला गया। फिर वह घुटनों के बल झुका और प्रार्थना करने लगा, 42 “हे परम पिता, यदि तेरी इच्छा हो तो इस प्याले को मुझसे दूर हटा किन्तु फिर भी मेरी नहीं, बल्कि तेरी इच्छा पूरी हो।” 43 तभी एक स्वर्गदूत वहाँ प्रकट हुआ और उसे शक्ति प्रदान करने लगा। 44 उधर यीशु बड़ी बेचैनी के साथ और अधिक तीव्रता से प्रार्थना करने लगा। उसका पसीना रक्त की बूँदों के समान धरती पर गिर रहा था।[b] 45 और जब वह प्रार्थना से उठकर अपने शिष्यों के पास आया तो उसने उन्हें शोक में थक कर सोते हुए पाया। 46 सो उसने उनसे कहा, “तुम सो क्यों रहे हो? उठो और प्रार्थना करो कि तुम किसी परीक्षा में न पड़ो।”

यीशु को बंदी बनाना

(मत्ती 26:47-56; मरकुस 14:43-50; यूहन्ना 18:3-11)

47 वह अभी बोल ही रहा था कि एक भीड़ आ जुटी। यहूदा नाम का एक व्यक्ति जो बारह शिष्यों में से एक था, उनकी अगुवाई कर रहा था। वह यीशु को चूमने के लिये उसके पास आया।

48 पर यीशु ने उससे कहा, “हे यहूदा, क्या तू एक चुम्बन के द्वारा मनुष्य के पुत्र को धोखे से पकड़वाने जा रहा है।” 49 जो घटने जा रहा था, उसे देखकर उसके आसपास के लोगों ने कहा, “हे प्रभु, क्या हम तलवार से वार करें?” 50 और उनमें से एक ने तो प्रमुख याजक के दास पर वार करके उसका दाहिना कान ही काट डाला।

51 किन्तु यीशु ने तुरंत कहा, “उन्हें यह भी करने दो।” फिर यीशु ने उसके कान को छू कर चंगा कर दिया।

52 फिर यीशु ने उस पर चढ़ाई करने आये प्रमुख याजकों, मन्दिर के अधिकारियों और बुजुर्ग यहूदी नेताओं से कहा, “क्या तुम तलवारें और लाठियाँ ले कर किसी डाकू का सामना करने निकले हो? 53 मन्दिर में मैं हर दिन तुम्हारे ही साथ था, किन्तु तुमने मुझ पर हाथ नहीं डाला। पर यह समय तुम्हारा है। अन्धकार के शासन का काल।”

पतरस का इन्कार

(मत्ती 26:57-58, 69-75; मरकुस 14:53-54, 66-72; यूहन्ना 18:12-18, 25-27)

54 उन्होंने उसे बंदी बना लिया और वहाँ से ले गये। फिर वे उसे प्रमुख याजक के घर ले गये। पतरस कुछ दूरी पर उसके पीछे पीछे आ रहा था। 55 आँगन के बीच उन्होंने आग सुलगाई और एक साथ नीचे बैठ गये। पतरस भी वही उन्हीं में बैठा था। 56 आग के प्रकाश में एक दासी ने उसे वहाँ बैठे देखा। उसने उस पर दृष्टि गढ़ाते हुए कहा, “यह आदमी भी उसके साथ था।”

57 किन्तु पतरस ने इन्कार करते हुए कहा, “हे स्त्री, मैं उसे नहीं जानता।” 58 थोड़ी देर बाद एक दूसरे व्यक्ति ने उसे देखा और कहा, “तू भी उन्हीं में से एक है।”

किन्तु पतरस बोला, “भले आदमी, मैं वह नहीं हूँ।”

59 कोई लगभग एक घड़ी बीती होगी कि कोई और भी बलपूर्वक कहने लगा, “निश्चय ही यह व्यक्ति उसके साथ भी था। क्योंकि देखो यह गलील वासी भी है।”

60 किन्तु पतरस बोला, “भले आदमी, मैं नहीं जानता तू किसके बारे में बात कर रहा है।”

उसी घड़ी, वह अभी बातें कर ही रहा था कि एक मुर्गे ने बाँग दी। 61 और प्रभु ने मुड़ कर पतरस पर दृष्टि डाली। तभी पतरस को प्रभु का वह वचन याद आया जो उसने उससे कहा था, “आज मुर्गे के बाँग देने से पहले तू मुझे तीन बार नकार चुकेगा।” 62 तब वह बाहर चला आया और फूट-फूट कर रो पड़ा।

यीशु का उपहास

(मत्ती 26:67-68; मरकुस 14:65)

63 जिन व्यक्तियों ने यीशु को पकड़ रखा था वे उसका उपहास करने और उसे पीटने लगे। 64 उसकी आँखों पर पट्टी बाँध दी और उससे यह कहते हुए पूछने लगे कि, “बता वह कौन है जिसने तुझे मारा?” 65 उन्होंने उसका अपमान करने के लिये उससे और भी बहुत सी बातें कहीं।

यीशु यहूदी नेताओं के सामने

(मत्ती 26:59-66; मरकुस 14:55-64; यूहन्ना 18:19-24)

66 जब दिन हुआ तो प्रमुख याजकों और धर्मशास्त्रियों समेत लोगों के बुजुर्ग नेताओं की एक सभा हुई। फिर वे लोग उसे अपनी महासभा में ले गये। 67 उन्होंने पूछा, “हमें बता क्या तू मसीह है?”

यीशु ने उनसे कहा, “यदि मैं तुमसे कहूँ तो तुम मेरा विश्वास नहीं करोगे। 68 और यदि मैं पूछूँ तो तुम उत्तर नहीं दोगे। 69 किन्तु अब से मनुष्य का पुत्र सर्वशक्तिमान परमेश्वर की दाहिनी ओर बैठाया जायेगा।”

70 वे सब बोले, “तो क्या तू परमेश्वर का पुत्र है?” उसने कहा, “हाँ, मैं हूँ।”

71 फिर उन्होंने कहा, “अब हमें किसी और प्रमाण की आवश्यकता क्यों है? हमने स्वयं इसके अपने मुँह से यह सुन तो लिया है।”

पिलातुस द्वारा यीशु से पूछताछ

(मत्ती 27:1-2, 11-14; मरकुस 15:1-5; यूहन्ना 18:28-38)

23 फिर उनकी सारी पंचायत उठ खड़ी हुई और वे उसे पिलातुस के सामने ले गये। वे उस पर अभियोग लगाने लगे। उन्होंने कहा, “हमने हमारे लोगों को बहकाते हुए इस व्यक्ति को पकड़ा है। यह कैसर को कर चुकाने का विरोध करता है और कहता है यह स्वयं मसीह है, एक राजा।”

इस पर पिलातुस ने यीशु से पूछा, “क्या तू यहूदियों का राजा है?”

यीशु ने उसे उत्तर दिया, “तू ही तो कह रहा है, मैं वही हूँ।”

इस पर पिलातुस ने प्रमुख याजकों और भीड़ से कहा, “मुझे इस व्यक्ति पर किसी आरोप का कोई आधार दिखाई नहीं देता।”

पर वे यहा कहते हुए दबाव डालते रहे, “इसने समूचे यहूदिया में लोगों को अपने उपदेशों से भड़काया है। यह इसने गलील में आरम्भ किया था और अब समूचा मार्ग पार करके यहाँ तक आ पहुँचा है।”

यीशु का हेरोदेस के पास भेजा जाना

पिलातुस ने यह सुनकर पूछा, “क्या यह व्यक्ति गलील का है?” फिर जब उसको यह पता चला कि वह हेरोदेस के अधिकार क्षेत्र के अधीन है तो उसने उसे हेरोदेस के पास भेज दिया जो उन दिनों यरूशलेम में ही था।

सो हेरोदेस ने जब यीशु को देखा तो वह बहुत प्रसन्न हुआ क्योंकि बरसों से वह उसे देखना चाह रहा था। क्योंकि वह उसके विषय में सुन चुका था और उसे कोई अद्भुत कर्म करते हुए देखने की आशा रखता था। उसने यीशु से अनेक प्रश्न पूछे किन्तु यीशु ने उसे कोई उत्तर नहीं दिया। 10 प्रमुख याजक और यहूदी धर्म शास्त्री वहीं खड़े थे और वे उस पर तीखे ढँग के साथ दोष लगा रहे थे। 11 हेरोदेस ने भी अपने सैनिकों समेत उसके साथ अपमानपूर्ण व्यवहार किया और उसकी हँसी उड़ाई। फिर उन्होंने उसे एक उत्तम चोगा पहना कर पिलातुस के पास वापस भेज दिया। 12 उस दिन हेरोदेस और पिलातुस एक दूसरे के मित्र बन गये। इससे पहले तो वे एक दूसरे के शत्रु थे।

यीशु को मरना होगा

(मत्ती 27:15-26; मरकुस 15:6-15; यूहन्ना 18:39-19:16)

13 फिर पिलातुस ने प्रमुख याजकों, यहूदी नेताओं और लोगों को एक साथ बुलाया। 14 उसने उनसे कहा, “तुम इसे लोगों को भटकाने वाले एक व्यक्ति के रूप में मेरे पास लाये हो। और मैंने यहाँ अब तुम्हारे सामने ही इसकी जाँच पड़ताल की है और तुमने इस पर जो दोष लगाये हैं उनका न तो मुझे कोई आधार मिला है और 15 न ही हेरोदेस को क्योंकि उसने इसे वापस हमारे पास भेज दिया है। जैसा कि तुम देख सकते हो इसने ऐसा कुछ नहीं किया है कि यह मौत का भागी बने। 16 इसलिये मैं इसे कोड़े मरवा कर छोड़ दूँगा।” 17 [c]

18 किन्तु वे सब एक साथ चिल्लाये, “इस आदमी को ले जाओ। हमारे लिये बरअब्बा को छोड़ दो।” 19 (बरअब्बा को शहर में मार धाड़ और हत्या करने के जुर्म में जेल में डाला हुआ था।)

20 पिलातुस यीशु को छोड़ देना चाहता था, सो उसने उन्हें फिर समझाया। 21 पर वे नारा लगाते रहे, “इसे क्रूस पर चढ़ा दो, इसे क्रूस पर चढ़ा दो।”

22 पिलातुस ने उनसे तीसरी बार पूछा, “किन्तु इस व्यक्ति ने क्या अपराध किया है? मुझे इसके विरोध में कुछ नहीं मिला है जो इसे मृत्यु दण्ड का भागी बनाये। इसलिये मैं कोड़े लगवाकर इसे छोड़ दूँगा।”

23 पर वे ऊँचे स्वर में नारे लगा लगा कर माँग कर रहे थे कि उसे क्रूस पर चढ़ा दिया जाये। और उनके नारों का कोलाहल इतना बढ़ गया कि 24 पिलातुस ने निर्णय दे दिया कि उनकी माँग मान ली जाये। 25 पिलातुस ने उस व्यक्ति को छोड़ दिया जिसे मार धाड़ और हत्या करने के जुर्म में जेल में डाला गया था (यह वही था जिसके छोड़ देने की वे माँग कर रहे थे) और यीशु को उनके हाथों में सौंप दिया कि वे जैसा चाहें, करे।

यीशु का क्रूस पर चढ़ाया जाना

(मत्ती 27:32-44; मरकुस 15:21-32; यूहन्ना 19:17-19)

26 जब वे यीशु को ले जा रहे थे तो उन्होंने कुरैन के रहने वाले शमौन नाम के एक व्यक्ति को, जो अपने खेतों से आ रहा था, पकड़ लिया और उस पर क्रूस लाद कर उसे यीशु के पीछे पीछे चलने को विवश किया।

27 लोगों की एक बड़ी भीड़ उसके पीछे चल रही थी। इसमें कुछ ऐसी स्त्रियाँ भी थीं जो उसके लिये रो रही थीं और विलाप कर रही थीं। 28 यीशु उनकी तरफ़ मुड़ा और बोला, “यरूशलेम की पुत्रियों, मेरे लिये मत बिलखो बल्कि स्वयं अपने लिये और अपनी संतान के लिये विलाप करो। 29 क्योंकि ऐसे दिन आ रहे हैं जब लोग कहेंगे, ‘वे स्त्रियाँ धन्य हैं, जो बाँझ हैं और धन्य हैं, वे कोख जिन्होंने किसी को कभी जन्म ही नहीं दिया। वे स्तन धन्य हैं जिन्होंने कभी दूध नहीं पिलाया।’ 30 फिर वे पर्वतों से कहेंगे, ‘हम पर गिर पड़ो’ और पहाड़ियों से कहेंगे ‘हमें ढक लो।’ 31 क्योंकि लोग जब पेड़ हरा है, उसके साथ तब ऐसा करते है तो जब पेड़ सूख जायेगा तब क्या होगा?”

32 दो और व्यक्ति, जो दोनों ही अपराधी थे, उसके साथ मृत्यु दण्ड के लिये बाहर ले जाये जा रहे थे। 33 फिर जब वे उस स्थान पर आये जो “खोपड़ी” कहलता है तो उन्होंने उन दोनों अपराधियों के साथ उसे क्रूस पर चढ़ा दिया, एक अपराधी को उसके दाहिनी ओर दूसरे को बाँई ओर।

34 इस पर यीशु बोला, “हे परम पिता, इन्हें क्षमा करना क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।”

फिर उन्होंने पासा फेंक कर उसके कपड़ों का बटवारा कर लिया।[d] 35 वहाँ खड़े लोग देख रहे थे। यहूदी नेता उसका उपहास करते हुए बोले, “इसने दूसरों का उद्धार किया है। यदि यह परमेश्वर का चुना हुआ मसीह है तो इसे अपने आप अपनी रक्षा करने दो।”

36 सैनिकों ने भी आकर उसका उपहास किया। उन्होंने उसे सिरका पीने को दिया 37 और कहा, “यदि तू यहूदियों का राजा है तो अपने आपको बचा ले।” 38 (उसके ऊपर यह सूचना अंकित कर दी गई थी, “यह यहूदियों का राजा है।”)

39 वहाँ लटकाये गये अपराधियों में से एक ने उसका अपमान करते हुए कहा, “क्या तू मसीह नहीं है? हमें और अपने आप को बचा ले।”

40 किन्तु दूसरे ने उस पहले अपराधी को फटकारते हुए कहा, “क्या तू परमेश्वर से नहीं डरता? तुझे भी वही दण्ड मिल रहा है। 41 किन्तु हमारा दण्ड तो न्याय पूर्ण है क्योंकि हमने जो कुछ किया, उसके लिये जो हमें मिलना चाहिये था, वही मिल रहा है पर इस व्यक्ति ने तो कुछ भी बुरा नहीं किया है।” 42 फिर वह बोला, “यीशु जब तू अपने राज्य में आये तो मुझे याद रखना।”

43 यीशु ने उससे कहा, “मैं तुझ से सत्य कहता हूँ, आज ही तू मेरे साथ स्वर्गलोक में होगा।”

यीशु का देहान्त

(मत्ती 27:45-56; मरकुस 15:33-41; यूहन्ना 19:28-30)

44 उस समय दिन के बारह बजे होंगे तभी तीन बजे तक समूची धरती पर गहरा अंधकार छा गया। 45 सूरज भी नहीं चमक रहा था। उधर मन्दिर में परदा फट कर दो टुकड़े हो गया। 46 यीशु ने ऊँचे स्वर में पुकारा, “हे परम पिता, मैं अपनी आत्मा तेरे हाथों सौंपता हूँ।” यह कहकर उसने प्राण छोड़ दिये।

47 जब रोमी सेनानायक ने, जो कुछ घटा था, उसे देखा तो परमेश्वर की प्रशंसा करते हुए उसने कहा, “यह निश्चय ही एक अच्छा मनुष्य था!”

48 जब वहाँ देखने आये एकत्र लोगों ने, जो कुछ हुआ था, उसे देखा तो वे अपनी छाती पीटते लौट गये। 49 किन्तु वे सभी जो उसे जानते थे, उन स्त्रियों समेत, जो गलील से उसके पीछे पीछे आ रहीं थीं, इन बातों को देखने कुछ दूरी पर खड़े थे।

अरमतियाह का यूसुफ

(मत्ती 27:57-61; मरकुस 15:42-47; यूहन्ना 19:38-42)

50-51 अब वहीं यूसुफ नाम का एक पुरुष था जो यहूदी महासभा का एक सदस्य था। वह एक अच्छा धर्मी पुरुष था। वह उनके निर्णय और उसे काम में लाने के लिये सहमत नहीं था। वह यहूदियों के एक नगर अरमतियाह का निवासी था। वह परमेश्वर के राज्य की बाट जोहा करता था। 52 वह व्यक्ति पिलातुस के पास गया और यीशु के शव की याचना की। 53 उसने शव को क्रूस पर से नीचे उतारा और सन के उत्तम रेशमों के बने कपड़े में उसे लपेट दिया। फिर उसने उसे चट्टान में काटी गयी एक कब्र में रख दिया, जिसमें पहले कभी किसी को नहीं रखा गया था। 54 वह शुक्रवार का दिन था और सब्त का प्रारम्भ होने को था।

55 वे स्त्रियाँ जो गलील से यीशु के साथ आई थीं, यूसुफ के पीछे हो लीं। उन्होंने वह कब्र देखी, और देखा कि उसका शव कब्र में कैसे रखा गया। 56 फिर उन्होंने घर लौट कर सुगंधित सामग्री और लेप तैयार किये।

सब्त के दिन व्यवस्था के विधि के अनुसार उन्होंने आराम किया।

Footnotes

  1. 22:20 कुछ यूनानी प्रतियों में पद 19 के अंतिम शब्द और पद 20 नहीं पाए जाते हैं।
  2. 22:44 कुछ यूनानी प्रतियों में पद 43 और 44 नहीं है।
  3. 23:17 कुछ यूनानी प्रतियों में पद 17 जोड़ा गया है: “पिलातुस को फ़सह पर्व पर हर साल जनता के लिये कोई एक बंदी को छोड़ना पड़ता था।”
  4. 23:34 यीशु बोला, “हे परमपिता … रहे है” पहले के कुछ यूनानी प्रतियों में यह भाग नहीं है।

कंगाल विधवा का दान

(मारक 12:41-44)

21 मसीह येशु ने देखा कि धनी व्यक्ति दानकोष में अपना-अपना दान डाल रहे हैं. उन्होंने यह भी देखा कि एक निर्धन विधवा ने दो छोटे सिक्के डाले हैं. इस पर मसीह येशु ने कहा, “सच यह है कि इस निर्धन विधवा ने उन सभी से बढ़कर दिया है. इन सबने तो अपने धन की बढ़ती में से दिया है किन्तु इस विधवा ने अपनी कंगाली में से अपनी सारी जीविका ही दे दी है.”

अन्त काल की घटनाओं का प्रकाशन

(मत्ति 24:1-25; मारक 13:1-23)

जब कुछ शिष्य मन्दिर के विषय में चर्चा कर रहे थे कि यह भवन कितने सुन्दर पत्थरों तथा मन्नत की भेंटों से सजाया है; मसीह येशु ने उनसे कहा, “जिन वस्तुओं को तुम इस समय सराह रहे हो, एक दिन आएगा कि इन भवनों का एक भी पत्थर दूसरे पर स्थापित न दिखेगा—हर एक पत्थर भूमि पर पड़ा होगा.”

उन्होंने मसीह येशु से प्रश्न किया, “गुरुवर, यह कब घटित होगा तथा इनके पूरा होने के समय का चिन्ह क्या होगा?”

मसीह येशु ने उत्तर दिया, “सावधान रहना कि तुम भटका न दिए जाओ, क्योंकि मेरे नाम में अनेक आएंगे और दावा करेंगे, ‘मैं मसीह हूँ’ तथा ‘वह समय पास आ गया है’, किन्तु उनकी न सुनना. जब तुम युद्धों तथा बलवों के समाचार सुनो तो भयभीत न होना. इनका पहले घटना ज़रूरी है फिर भी इनके तुरन्त बाद अन्त नहीं होगा.”

10 तब मसीह येशु ने उनसे कहा, “राष्ट्र राष्ट्र के तथा राज्य राज्य के विरुद्ध उठ खड़ा होगा. 11 भीषण भूकम्प आएंगे. विभिन्न स्थानों पर महामारियां होंगी तथा अकाल पड़ेंगे. भयावह घटनाएँ होंगी तथा आकाश में अचम्भित दृश्य दिखाई देंगे.

12 “इन सबके पहले वे तुम्हें पकड़ लेंगे और तुम्हें यातनाएँ देंगे. मेरे नाम के कारण वे तुम्हें सभागृहों में ले जाएँगे, बन्दीगृह में डाल देंगे तथा तुम्हें राजाओं और राज्यपालों के हाथों में सौंप देंगे. 13 इसके परिणामस्वरूप तुम्हें गवाही देने का सुअवसर प्राप्त हो जाएगा. 14 इसलिए यह सुनिश्चित करो कि तुम पहले ही अपने बचाव की तैयारी नहीं करोगे, 15 क्योंकि तुम्हें अपने बचाव में कहने के विचार तथा बुद्धि मैं दूँगा, जिसका तुम्हारे विरोधी न तो सामना कर सकेंगे और न ही खण्डन. 16 तुम्हारे माता-पिता, भाई-बहन तथा परिजन और मित्र ही तुम्हारे साथ धोखा करेंगे—वे तुम में से कुछ की तो हत्या भी कर देंगे. 17 मेरे नाम के कारण सभी तुमसे घृणा करेंगे. 18 फिर भी तुम्हारे एक बाल तक की हानि न होगी. 19 तुम्हारे धीरज में छिपी होगी तुम्हारे जीवन की सुरक्षा.

20 “जिस समय येरूशालेम नगर सेनाओं द्वारा घिरा हुआ दिखे, तब यह समझ लेना कि विनाश पास है. 21 तब वे, जो यहूदिया प्रदेश में हैं, भाग कर पर्वतों की शरण लें; वे, जो नगर में हैं, नगर छोड़ कर चले जाएँ; जो नगर के बाहर हैं, वे नगर में प्रवेश न करें 22 क्योंकि यह बदला लेने का समय होगा कि वह सब, जो लेखों में पहले से लिखा है, पूरा हो जाए. 23 दयनीय होगी गर्भवती और दूध पिलाती स्त्रियों की स्थिति! क्योंकि यह मनुष्यों पर क्रोध तथा पृथ्वी पर घोर संकट का समय होगा.

24 “वे तलवार से घात किए जाएँगे, अन्य राष्ट्र उन्हें बन्दी बना कर ले जाएँगे. येरूशालेम नगर अन्यजातियों द्वारा उस समय तक रौंदा जाएगा जब तक अन्यजातियों का समय पूरा न हो जाए.

25 “सूर्य, चन्द्रमा और तारों में अद्भुत चिह्न दिखाई देंगे. पृथ्वी पर राष्ट्रों में आतंक छा जाएगा. उफ़नते सागर की लहरों के कारण लोग घबरा जाएँगे. 26 लोग भय और इस आशंका से मूर्च्छित हो जाएँगे कि अब संसार का क्या होगा क्योंकि आकाश की शक्तियाँ हिला दी जाएँगी. 27 तब वे मनुष्य के पुत्र को बादल में सामर्थ्य और प्रताप में नीचे आता हुआ देखेंगे. 28 जब ये घटनाएँ घटित होने लगें, साहस के साथ स्थिर खड़े हो कर आनेवाली घटना की प्रतीक्षा करो क्योंकि समीप होगा तुम्हारा छुटकारा.”

29 तब मसीह येशु ने उन्हें इस दृष्टान्त के द्वारा शिक्षा दी: “अंजीर के पेड़ तथा अन्य वृक्षों पर ध्यान दो. 30 जब उनमें कोंपलें निकलने लगती हैं तो तुम स्वयं जान जाते हो कि गर्मी का समय पास है. 31 इसी प्रकार, जब तुम इन घटनाओं को घटित होते हुए देखो तो तुम यह जान जाओगे कि परमेश्वर का राज्य अब पास है.

32 “वस्तुत: यह पीढ़ी उस समय तक समाप्त नहीं होगी जब तक ये सभी घटनाएँ घटित न हो जाएँ. 33 आकाश और पृथ्वी का लुप्त हो जाना सम्भव है किन्तु मेरे शब्दों का बिलकुल नहीं.

34 “सावधान रहना कि तुम्हारा हृदय जीवन सम्बन्धी चिन्ताओं, दुर्व्यसनों तथा मतवालेपन में पड़ कर सुस्त न हो जाए और वह दिन तुम पर अचानक से फन्दे जैसा आ पड़े. 35 उस दिन का प्रभाव पृथ्वी के हर एक मनुष्य पर पड़ेगा. 36 हमेशा सावधान रहना, प्रार्थना करते रहना कि तुम्हें इन आनेवाली घटनाओं से निकलने के लिए बल प्राप्त हो और तुम मनुष्य के पुत्र की उपस्थिति में खड़े हो सको.”

37 दिन के समय मसीह येशु मन्दिर में शिक्षा दिया करते तथा सन्ध्याकाल में वह ज़ैतून पर्वत पर जा कर प्रार्थना करते हुए रात बिताया करते थे. 38 लोग भोर में उनका प्रवचन सुनने मन्दिर आ जाया करते थे.

मसीह येशु की हत्या का षड्यन्त्र

(मत्ति 26:1-5; मारक 14:1, 2)

22 अख़मीरी रोटी का उत्सव, जो फ़सह पर्व कहलाता है, पास आ रहा था. प्रधान याजक तथा शास्त्री इस खोज में थे कि मसीह येशु को किस प्रकार मार डाला जाए, किन्तु उन्हें लोगों का भय था.

शैतान ने कारियोतवासी यहूदाह में, जो बारह शिष्यों में से एक था, प्रवेश किया. उसने प्रधान पुरोहितों तथा अधिकारियों से मिल कर निश्चित किया कि वह किस प्रकार मसीह येशु को पकड़वा सकता है. इस पर प्रसन्न हो वे उसे इसका दाम देने पर सहमत हो गए. यहूदाह मसीह येशु को उनके हाथ पकड़वा देने के ऐसे सुअवसर की प्रतीक्षा करने लगा, जब आसपास भीड़ न हो.

फ़सह भोज की तैयारी

(मत्ति 26:17-19; मारक 14:12-16)

तब अख़मीरी रोटी का उत्सव आ गया, जब फ़सह का मेमना बलि किया जाता था. मसीह येशु ने पेतरॉस और योहन को इस आज्ञा के साथ भेजा, “जाओ और हमारे लिए फ़सह की तैयारी करो.”

उन्होंने उनसे प्रश्न किया, “प्रभु, हम किस स्थान पर इसकी तैयारी करें, आप क्या चाहते हैं?”

10 मसीह येशु ने उन्हें उत्तर दिया, “नगर में प्रवेश करते ही तुम्हें एक व्यक्ति पानी का घड़ा ले जाता हुआ मिलेगा. उसका पीछा करते हुए तुम उस घर में चले जाना, 11 जिस घर में वह प्रवेश करेगा. उस घर के स्वामी से कहना, ‘गुरु ने पूछा है, “वह अतिथि कक्ष कहाँ है जहाँ मैं अपने शिष्यों के साथ फ़सह खाऊँगा?” ’ 12 वह तुमको एक विशाल, सुसज्जित ऊपरी कक्ष दिखाएगा; तुम वहीं सारी तैयारी करना.”

13 यह सुन वे दोनों वहाँ से चले गए और सब कुछ ठीक वैसा ही पाया जैसा मसीह येशु ने कहा था. उन्होंने वहाँ फ़सह तैयार किया.

14 नियत समय पर मसीह येशु अपने प्रेरितों के साथ भोज पर बैठे. 15 उन्होंने प्रेरितों से कहा, “मेरी बड़ी लालसा थी कि मैं अपने दुःख-भोग के पहले यह फ़सह तुम्हारे साथ खाऊँ. 16 क्योंकि सच यह है कि मैं इसे दोबारा तब तक नहीं खाऊँगा जब तक यह परमेश्वर के राज्य में पूरा न हो.”

17 तब उन्होंने प्याला उठाया, परमेश्वर के प्रति धन्यवाद दिया और कहा, “इसे लो, आपस में बांट लो 18 क्योंकि यह निर्धारित है कि जब तक परमेश्वर के राज्य का आगमन न हो जाए, मैं दाखरस दोबारा नहीं पिऊँगा.”

प्रभु-भोज का प्रतिष्ठापन

19 तब उन्होंने रोटी ली, धन्यवाद देते हुए उसे तोड़ा और शिष्यों को यह कहते हुए दे दी, “यह मेरा शरीर है, जो तुम्हारे लिए दिया जा रहा है. मेरी याद में तुम ऐसा ही किया करना.”

20 इसी प्रकार इसके बाद मसीह येशु ने प्याला उठाया और कहा, “यह प्याला मेरे लहू में, जो तुम्हारे लिए बहाया जा रहा है, नई वाचा है.

21 “वह, जो मुझे पकड़वाएगा हमारे साथ इस भोज में शामिल है. 22 मैं ये सब इसलिए कह रहा हूँ कि मनुष्य का पुत्र, जैसा उसके लिए तय किया गया है, ठीक उसी के अनुसार आगे बढ़ रहा है किन्तु धिक्कार है उस व्यक्ति पर जिसके द्वारा मनुष्य का पुत्र पकड़वाया जा रहा है!” 23 यह सुन वे आपस में विचार-विमर्श करने लगे कि वह कौन हो सकता है, जो यह करने पर है.

24 उनके बीच यह विवाद भी उठ खड़ा हुआ कि उनमें से सबसे बड़ा कौन है. 25 यह जान मसीह येशु ने उनसे कहा, “अन्यजातियों के राजा उन पर शासन करते हैं और वे, जिन्हें उन पर अधिकार है, उनके हितैषी कहलाते हैं. 26 किन्तु तुम वह नहीं हो—तुममें जो बड़ा है, वह सबसे छोटे के समान हो जाए और राजा सेवक समान. 27 बड़ा कौन है—क्या वह, जो भोजन पर बैठा है या वह, जो खड़ा हुआ सेवा कर रहा है? तुम्हारे मध्य मैं सेवक के समान हूँ.

28 “तुम्हीं हो, जो मेरे विषम समयों में मेरा साथ देते रहे हो. 29 इसलिए जैसा मेरे पिता ने मुझे एक राज्य प्रदान किया है, 30 वैसा ही मैं भी तुम्हें यह अधिकार देता हूँ कि तुम मेरे राज्य में मेरी मेज़ पर बैठ कर मेरे साथ संगति करो, और सिंहासनों पर बैठ कर इस्राएल के बारह वंशों का न्याय.

31 “शिमोन, शिमोन, सुनो! शैतान ने तुम सबको गेहूं के समान अलग करने की आज्ञा प्राप्त कर ली है. 32 किन्तु शिमोन, तुम्हारे लिए मैंने प्रार्थना की है कि तुम्हारे विश्वास का पतन न हो. जब तुम पहले जैसी स्थिति पर लौट आओ तो अपने भाइयों को भी विश्वास में मजबूत करना.”

33 पेतरॉस ने मसीह येशु से कहा, “प्रभु, मैं तो आपके साथ दोनों ही को स्वीकारने के लिए तत्पर हूँ—बन्दीगृह तथा मृत्यु!”

34 मसीह येशु ने इसके उत्तर में कहा, “सुनो, पेतरॉस, आज रात, मुर्ग तब तक बाँग न देगा, जब तक तुम तीन बार इस सच को कि तुम मुझे जानते हो, नकार न चुके होगे.”

35 मसीह येशु ने उनसे प्रश्न किया, “यह बताओ, जब मैंने तुम्हें बिना बटुए, बिना झोले और बिना जूती के बाहर भेजा था, क्या तुम्हें कोई अभाव हुआ था?”

“बिल्कुल नहीं,” उन्होंने उत्तर दिया.

36 तब मसीह येशु ने उनसे कहा, “किन्तु अब जिस किसी के पास बटुआ है, वह उसे साथ ले ले. इसी प्रकार झोला भी और जिसके पास तलवार नहीं है, वह अपना वस्त्र बेच कर तलवार मोल ले. 37 मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ कि यह जो लेख लिखा है—उसकी गिनती अपराधियों में हुई—का मुझमें पूरा होना ज़रूरी है क्योंकि मुझसे सम्बन्धित सभी लेखों का पूरा होना अवश्य है.”

38 शिष्यों ने कहा, “प्रभु, देखिए, ये दो तलवारें हैं.” मसीह येशु ने उत्तर दिया, “पर्याप्त हैं.”

गेतसेमनी उद्यान में मसीह येशु की अवर्णनीय वेदना

(मत्ति 26:36-46)

39 तब मसीह येशु बाहर निकल कर ज़ैतून पर्वत पर चले गए, जहाँ वह प्रायः जाया करते थे. उनके शिष्य भी उनके साथ थे. 40 उस स्थान पर पहुँच कर मसीह येशु ने उनसे कहा, “प्रार्थना करो कि तुम परीक्षा में न फँसो.”

41 तब मसीह येशु शिष्यों से कुछ ही दूरी पर गए और उन्होंने घुटने टेक कर यह प्रार्थना की: 42 “पिताजी, यदि सम्भव हो तो यातना का यह प्याला मुझसे दूर कर दीजिए फिर भी मेरी नहीं, आपकी इच्छा पूरी हो.” 43 उसी समय स्वर्ग से एक स्वर्गदूत ने आ कर उनमें बल का संचार किया. 44 प्राण निकलने के समान दर्द में वह और भी अधिक कातर भाव में प्रार्थना करने लगे. उनका पसीना लहू के समान भूमि पर टपक रहा था.

45 जब वह प्रार्थना से उठे और शिष्यों के पास आए तो उन्हें सोता हुआ पाया. उदासी के मारे शिष्य सो चुके थे. 46 मसीह येशु ने शिष्यों से कहा, “सो क्यों रहे हो? उठो! प्रार्थना करो कि तुम किसी परीक्षा में न फँसो.”

मसीह येशु का बन्दी बनाया जाना

(मत्ति 26:47-56; मारक 14:43-52; योहन 18:1-11)

47 मसीह येशु जब यह कह ही रहे थे, तभी एक भीड़ वहाँ आ पहुंची. उनमें यहूदाह, जो बारह शिष्यों में से एक था, सबसे आगे था. वह मसीह येशु को चूमने के लिए आगे बढ़ा 48 किन्तु मसीह येशु ने उससे कहा, “यहूदाह! क्या मनुष्य के पुत्र को तुम इस चुम्बन के द्वारा पकड़वा रहे हो?”

49 यह पता चलने पर कि क्या होने पर है शिष्यों ने मसीह येशु से पूछा, “प्रभु, क्या हम तलवार चलाएं?” 50 उनमें से एक ने तो महायाजक के दास पर वार कर उस दास का दाहिना कान ही उड़ा दिया.

51 मसीह येशु इस पर बोले, “बस! बहुत हुआ” और उन्होंने उस दास के कान का स्पर्श कर उसे पहले जैसा कर दिया.

52 तब मसीह येशु ने प्रधान पुरोहितों, मन्दिर के पहरुओं तथा वहाँ उपस्थित पुरनियों को सम्बोधित करते हुए कहा, “तलवारें और लाठियाँ ले कर क्या आप किसी राजद्रोही को पकड़ने आए हैं? 53 आपने मुझे तब तो नहीं पकड़ा जब मैं मन्दिर आँगन में प्रतिदिन आपके साथ हुआ करता था! यह इसलिए कि यह क्षण आपका है—अन्धकार के हाकिम का.”

पेतरॉस का नकारना

(मत्ति 26:69-75; मारक 14:66-72; योहन 18:25-27)

54 वे मसीह येशु को पकड़ कर महायाजक के घर पर ले गए. पेतरॉस दूर ही दूर से उनके पीछे-पीछे चलते रहे. 55 जब लोग आँगन में आग जलाए हुए बैठे थे, पेतरॉस भी उनके साथ बैठ गए. 56 एक सेविका ने पेतरॉस को आग की रोशनी में देखा और उनको एकटक देखते हुए कहा, “यह व्यक्ति भी उसके साथ था!”

57 पेतरॉस ने नकारते हुए कहा, “नहीं! हे स्त्री, मैं उसे नहीं जानता!”

58 कुछ समय बाद किसी अन्य ने उन्हें देख कर कहा.

“तुम भी तो उनमें से एक हो!”

“नहीं भाई, नहीं!” पेतरॉस ने उत्तर दिया.

59 लगभग एक घण्टे बाद एक अन्य व्यक्ति ने बल देते हुए कहा, “निस्सन्देह यह व्यक्ति भी उसके साथ था क्योंकि यह भी गलीलवासी है.”

60 पेतरॉस ने उत्तर दिया, “महोदय, मेरी समझ में नहीं आ रहा कि आप क्या कह रहे हैं!” जब वह यह कह ही रहे थे कि एक मुर्ग ने बाँग दी. 61 उसी समय प्रभु ने मुड़ कर पेतरॉस की ओर दृष्टि की और पेतरॉस को प्रभु की पहले कही हुई बात याद आ गई: “इसके पहले कि मुर्ग बाँग दे, तुम आज तीन बार मुझे नकार चुके होगे.” 62 पेतरॉस बाहर चले गए और फूट-फूट कर रोने लगे.

सिपाहियों द्वारा मसीह येशु का मज़ाक उड़ाया जाना

63 जिन्होंने मसीह येशु को पकड़ा था, वे उनको ठठ्ठों में उड़ाते हुए उन पर वार करते जा रहे थे. 64 उन्होंने मसीह येशु की आँखों पर पट्टी बांधी और उनसे पूछने लगे, “अपनी भविष्यवाणी से बता, किसने वार किया है तुझ पर?” 65 इसके अतिरिक्त वे उनकी निन्दा करते हुए उनके लिए अनेक अपमानजनक शब्द भी कहे जा रहे थे.

मसीह येशु पिलातॉस के न्यायालय में

(मत्ति 27:1, 2; मारक 15:1)

66 पौ फटने पर पुरनिये लोगों ने प्रधान पुरोहितों तथा शास्त्रियों की एक सभा बुलाई और मसीह येशु को महासभा में ले गए. 67 उन्होंने मसीह येशु से प्रश्न किया, “यदि तुम ही मसीह हो तो हमें बता दो.” 68 मसीह येशु ने उत्तर दिया, “यदि मैं आपको यह बताऊँगा तो भी आप इसका विश्वास नहीं करेंगे और यदि मैं आप से कोई प्रश्न करूँ तो आप उसका उत्तर ही न देंगे; 69 किन्तु अब इसके बाद मनुष्य का पुत्र सर्वशक्तिमान परमेश्वर की दायीं ओर बैठाया जाएगा.”

70 उन्होंने प्रश्न किया, “तो क्या तुम परमेश्वर के पुत्र हो?” मसीह येशु ने उत्तर दिया, “जी हाँ, मैं हूँ.”

71 यह सुन वे कहने लगे, “अब हमें गवाहों की ज़रूरत ही न रही—स्वयं हमने यह इसके मुख से सुन लिया है.” इस पर सारी सभा उठ खड़ी हुई और वे मसीह येशु को राज्यपाल पिलातॉस के पास ले गए.

मसीह येशु पिलातॉस के सामने

(मत्ति 27:11-14; मारक 15:2-5; योहन 18:28-37)

23 पिलातॉस के सामने वे यह कहते हुए मसीह येशु पर दोष लगाने लगे, “हमने यह पाया है कि यह व्यक्ति हमारे राष्ट्र को भरमा रहा है. यह कयसर को कर देने का विरोध करता तथा यह दावा करता है कि वह स्वयं ही मसीह, राजा है.”

इसलिए पिलातॉस ने मसीह येशु से प्रश्न किया, “क्या तुम यहूदियों के राजा हो?”

“सच वही है, जो आपने कहा है.” मसीह येशु ने उत्तर दिया.

इस पर पिलातॉस ने प्रधान पुरोहितों और भीड़ को सम्बोधित करते हुए घोषणा की, “मुझे इस व्यक्ति में ऐसा कोई दोष नहीं मिला कि इस पर मुकद्दमा चलाया जाए.”

किन्तु वे दृढ़तापूर्वक कहते रहे, “यह सारे यहूदिया प्रदेश में लोगों को अपनी शिक्षाओं द्वारा भड़का रहा है. यह सब इसने गलील प्रदेश में प्रारम्भ किया और अब यहाँ भी आ पहुँचा है.”

यह सुनते ही पिलातॉस ने प्रश्न किया, “क्या यह व्यक्ति गलीलवासी है?” यह मालूम होने पर कि मसीह येशु हेरोदेस के अधिकार क्षेत्र के हैं, उसने उन्हें हेरोदेस के पास भेज दिया, जो इस समय येरूशालेम नगर में ही था.

हेरोदेस के सामने मसीह येशु

मसीह येशु को देख कर हेरोदेस अत्यन्त प्रसन्न हुआ क्योंकि बहुत दिनों से उसे मसीह येशु को देखने की इच्छा थी. उसने मसीह येशु के विषय में बहुत कुछ सुन रखा था. उसे आशा थी कि वह मसीह येशु द्वारा किया गया कोई चमत्कार देख सकेगा. उसने मसीह येशु से अनेक प्रश्न किए किन्तु मसीह येशु ने कोई भी उत्तर न दिया. 10 प्रधान याजक और शास्त्री वहीं खड़े हुए थे और पूरे ज़ोर शोर से मसीह येशु पर दोष लगा रहे थे. 11 हेरोदेस और उसके सैनिकों ने अपमान करके मसीह येशु का मज़ाक उड़ाया और उन पर भड़कीला वस्त्र डाल कर वापस पिलातॉस के पास भेज दिया. 12 उसी दिन से हेरोदेस और पिलातॉस में मित्रता हो गई—इसके पहले वे एक-दूसरे के शत्रु थे.

13 पिलातॉस ने प्रधान पुरोहितों, नायकों और लोगों को पास बुलाया 14 और उनसे कहा, “तुम इस व्यक्ति को यह कहते हुए मेरे पास लाए हो कि यह लोगों को विद्रोह के लिए उकसा रहा है. तुम्हारी ही उपस्थिति में मैंने उससे पूछताछ की और मुझे उसमें तुम्हारे द्वारा लगाए आरोप के लिए कोई भी आधार नहीं मिला—न ही हेरोदेस को उसमें कोई दोष मिला है. 15 उसने उसे हमारे पास ही भेज दिया है. तुम देख ही रहे हो कि उसने मृत्युदण्ड के योग्य कोई अपराध नहीं किया है. 16 इसलिए मैं उसे कोड़े लगवा कर छोड़ देता हूँ.” 17 उत्सव के अवसर पर एक बन्दी को मुक्त कर देने की प्रथा थी.

18 भीड़ एक शब्द में चिल्ला उठी, “उसे मृत्युदण्ड दीजिए और हमारे लिए बार-अब्बा को मुक्त कर दीजिए!” 19 बार-अब्बा को नगर में विद्रोह भड़काने और हत्या के आरोप में बन्दी बनाया गया था.

20 मसीह येशु को मुक्त करने की इच्छा से पिलातॉस ने उनसे एक बार फिर विनती की 21 किन्तु वे चिल्लाते रहे, “क्रूस पर चढ़ाओ! क्रूस पर चढ़ाओ!”

22 पिलातॉस ने तीसरी बार उनसे प्रश्न किया, “क्यों? क्या है उसका अपराध? मुझे तो उसमें मृत्युदण्ड देने योग्य कोई दोष नहीं मिला. मैं उसे कोड़े लगवा कर छोड़ देता हूँ.”

23 किन्तु वे हठ करते हुए ऊँचे शब्द में चिल्लाते रहे, “क्रूस पर चढ़ाओ उसे!” तब हार कर उसे उनके आगे झुकना ही पड़ा. 24 पिलातॉस ने अनुमति दे दी कि उनकी माँग पूरी की जाए 25 और उसने उस व्यक्ति को मुक्त कर दिया, जिसे विद्रोह तथा हत्या के अपराधों में बन्दी बनाया गया था, जिसे छोड़ देने की उन्होंने माँग की थी और उसने मसीह येशु को भीड़ की इच्छानुसार उन्हें ही सौंप दिया.

क्रूस-मार्ग पर मसीह येशु

(मत्ति 27:32-34; मारक 15:21-24; योहन 19:17)

26 जब सैनिक मसीह येशु को ले कर जा रहे थे, उन्होंने सायरीनवासी शिमोन को पकड़ा, जो अपने गाँव से आ रहा था. उन्होंने मसीह येशु के लिए निर्धारित क्रूस उस पर लाद दिया कि वह उसे ले कर मसीह येशु के पीछे-पीछे जाए. 27 बड़ी संख्या में लोग उनके पीछे चल रहे थे. उनमें अनेक स्त्रियाँ भी थीं, जो मसीह येशु के लिए विलाप कर रही थीं. 28 मुड़ कर मसीह येशु ने उनसे कहा, “येरूशालेम की पुत्रियो! मेरे लिए रोना छोड़ कर स्वयं अपने लिए तथा अपनी सन्तान के लिए रोओ. 29 क्योंकि वे दिन आ रहे हैं जब लोग कहेंगे, ‘धन्य हैं वे स्त्रियाँ, जो बाँझ हैं, वे गर्भ, जिन्होंने सन्तान उत्पन्न नहीं किए और वे स्तन, जिन्होंने दूध नहीं पिलाया!’ 30 तब

“‘वे पर्वतों को सम्बोधित करके कहेंगे, “हम पर आ गिरो!”
    और पहाड़ियों से, “हमको ढाँप लो!” ’

31 क्योंकि जब वे एक हरे पेड़ के साथ इस प्रकार का व्यवहार कर रहे हैं तब क्या होगी सूखे पेड़ की दशा?”

32 अन्य दो भी, जो राजद्रोह के अपराधी थे, मसीह येशु के साथ मृत्युदण्ड के लिए ले जाए जा रहे थे. 33 जब वे कपाल नामक स्थल पर पहुँचे उन्होंने मसीह येशु तथा उन दोनों राजद्रोहियों को भी क्रूसित कर दिया—एक को मसीह येशु की दायीं ओर दूसरे को उनकी बायीं ओर. 34 मसीह येशु ने प्रार्थना की, “पिता, इनको क्षमा कर दीजिए क्योंकि इन्हें यह पता ही नहीं कि ये क्या कर रहे हैं.” उन्होंने पासा फेंक कर मसीह येशु के वस्त्र आपस में बांट लिए.

35 भीड़ खड़ी हुई यह सब देख रही थी. यहूदी राजा यह कहते हुए मसीह येशु का ठठ्ठा कर रहे थे, “इसने अन्य लोगों की रक्षा की है. यदि यह परमेश्वर का मसीह, उनका चुना हुआ है, तो अब अपनी रक्षा स्वयं कर ले.”

36 सैनिक भी उनका ठठ्ठा कर रहे थे. वे मसीह येशु के पास आ कर उन्हें घटिया दाखरस प्रस्तुत करके कह रहे थे, 37 “यदि यहूदियों के राजा हो तो स्वयं को बचा लो.”

38 क्रूस पर उनके सिर के ऊपर सूचना पत्र के रूप में यह लिखा था: यही वह यहूदियों का राजा है.

39 वहाँ लटकाए गए राजद्रोहियों में से एक ने मसीह येशु पर अपशब्दों की बौछार करते हुए कहा: “अरे! क्या तुम मसीह नहीं हो? स्वयं अपने आपको बचाओ और हमको भी!”

40 किन्तु दूसरे राजद्रोही ने डपटते हुए उससे कहा, “क्या तुझे परमेश्वर का थोड़ा भी भय नहीं है? तुझे भी तो वही दण्ड दिया जा रहा है! 41 हमारे लिए तो यह दण्ड सही ही है क्योंकि हमें वही मिल रहा है, जो हमारे बुरे कामों के लिए सही है किन्तु इन्होंने तो कुछ भी गलत नहीं किया.”

42 तब मसीह येशु की ओर देखकर उसने उनसे विनती की, “आदरणीय येशु! अपने राज्य में मुझ पर दया कीजिएगा.”

43 मसीह येशु ने उसे आश्वासन दिया, “मैं तुम पर यह सच्चाई प्रकट कर रहा हूँ: आज ही तुम मेरे साथ स्वर्गलोक में होगे.”

मसीह येशु की मृत्यु

(मत्ति 27:45-56; मारक 15:33-41; योहन 19:28-37)

44 यह दिन का छठा घण्टा था. सारे क्षेत्र पर अन्धकार छा गया और यह नवें घण्टे तक छाया रहा. 45 सूर्य अंधियारा हो गया, मन्दिर का परदा फट कर दो भागों में बांट दिया गया. 46 मसीह येशु ने ऊँचे शब्द में पुकारते हुए कहा, “पिता! मैं अपनी आत्मा आपके हाथों में सौंपता हूँ.” यह कहते हुए उन्होंने प्राण त्याग दिए.

47 वह सेनापति, जो यह सब देख रहा था, यह कहते हुए परमेश्वर की वन्दना करने लगा, “सचमुच यह व्यक्ति निर्दोष था.” 48 इस घटना को देखने के लिए इकट्ठा भीड़ यह सब देख विलाप करती हुई घर लौट गयी. 49 मसीह येशु के परिचित और गलील प्रदेश से मसीह येशु के साथ आई स्त्रियाँ कुछ दूर खड़ी हुई ये सब देख रही थीं.

मसीह येशु को क़ब्र में रखा जाना

(मत्ति 27:57-61; मारक 15:42-47; योहन 19:28-42)

50 योसेफ़ नामक एक व्यक्ति थे. वह महासभा के सदस्य, सज्जन तथा धर्मी थे. 51 वह न तो यहूदी अगुवों की योजना से और न ही उसके कामों से सहमत थे. योसेफ़ यहूदियों के एक नगर अरिमथिया के निवासी थे और वह परमेश्वर के राज्य की प्रतीक्षा कर रहे थे. 52 योसेफ़ ने पिलातॉस के पास जा कर विनती की कि मसीह येशु का शव उन्हें दे दिया जाए. 53 उन्होंने शव को क्रूस से उतार कर मलमल के वस्त्र में लपेटा और चट्टान में खोद कर बनाई गई एक क़ब्र की गुफ़ा में रख दिया. इस क़ब्र में अब तक कोई भी शव रखा नहीं गया था. 54 यह शब्बाथ की तैयारी का दिन था. शब्बाथ प्रारम्भ होने पर ही था.

55 गलील प्रदेश से आई हुई स्त्रियाँ भी उनके साथ वहाँ गईं. उन्होंने उस क़ब्र को देखा तथा यह भी कि शव को वहाँ कैसे रखा गया था. 56 तब वे सब घर लौट गए और उन्होंने अंत्येष्टि के लिए उबटन-लेप तैयार किए. व्यवस्था के अनुसार उन्होंने शब्बाथ पर विश्राम किया; किन्तु सप्ताह के पहिले दिन पौ फटते ही वे तैयार किए गए उबटन-लेपों को ले कर क़ब्र की गुफ़ा पर आईं.

The Widow’s Offering(A)

21 As Jesus looked up, he saw the rich putting their gifts into the temple treasury.(B) He also saw a poor widow put in two very small copper coins. “Truly I tell you,” he said, “this poor widow has put in more than all the others. All these people gave their gifts out of their wealth; but she out of her poverty put in all she had to live on.”(C)

The Destruction of the Temple and Signs of the End Times(D)(E)

Some of his disciples were remarking about how the temple was adorned with beautiful stones and with gifts dedicated to God. But Jesus said, “As for what you see here, the time will come when not one stone will be left on another;(F) every one of them will be thrown down.”

“Teacher,” they asked, “when will these things happen? And what will be the sign that they are about to take place?”

He replied: “Watch out that you are not deceived. For many will come in my name, claiming, ‘I am he,’ and, ‘The time is near.’ Do not follow them.(G) When you hear of wars and uprisings, do not be frightened. These things must happen first, but the end will not come right away.”

10 Then he said to them: “Nation will rise against nation, and kingdom against kingdom.(H) 11 There will be great earthquakes, famines and pestilences in various places, and fearful events and great signs from heaven.(I)

12 “But before all this, they will seize you and persecute you. They will hand you over to synagogues and put you in prison, and you will be brought before kings and governors, and all on account of my name. 13 And so you will bear testimony to me.(J) 14 But make up your mind not to worry beforehand how you will defend yourselves.(K) 15 For I will give you(L) words and wisdom that none of your adversaries will be able to resist or contradict. 16 You will be betrayed even by parents, brothers and sisters, relatives and friends,(M) and they will put some of you to death. 17 Everyone will hate you because of me.(N) 18 But not a hair of your head will perish.(O) 19 Stand firm, and you will win life.(P)

20 “When you see Jerusalem being surrounded by armies,(Q) you will know that its desolation is near. 21 Then let those who are in Judea flee to the mountains, let those in the city get out, and let those in the country not enter the city.(R) 22 For this is the time of punishment(S) in fulfillment(T) of all that has been written. 23 How dreadful it will be in those days for pregnant women and nursing mothers! There will be great distress in the land and wrath against this people. 24 They will fall by the sword and will be taken as prisoners to all the nations. Jerusalem will be trampled(U) on by the Gentiles until the times of the Gentiles are fulfilled.

25 “There will be signs in the sun, moon and stars. On the earth, nations will be in anguish and perplexity at the roaring and tossing of the sea.(V) 26 People will faint from terror, apprehensive of what is coming on the world, for the heavenly bodies will be shaken.(W) 27 At that time they will see the Son of Man(X) coming in a cloud(Y) with power and great glory. 28 When these things begin to take place, stand up and lift up your heads, because your redemption is drawing near.”(Z)

29 He told them this parable: “Look at the fig tree and all the trees. 30 When they sprout leaves, you can see for yourselves and know that summer is near. 31 Even so, when you see these things happening, you know that the kingdom of God(AA) is near.

32 “Truly I tell you, this generation(AB) will certainly not pass away until all these things have happened. 33 Heaven and earth will pass away, but my words will never pass away.(AC)

34 “Be careful, or your hearts will be weighed down with carousing, drunkenness and the anxieties of life,(AD) and that day will close on you suddenly(AE) like a trap. 35 For it will come on all those who live on the face of the whole earth. 36 Be always on the watch, and pray(AF) that you may be able to escape all that is about to happen, and that you may be able to stand before the Son of Man.”

37 Each day Jesus was teaching at the temple,(AG) and each evening he went out(AH) to spend the night on the hill called the Mount of Olives,(AI) 38 and all the people came early in the morning to hear him at the temple.(AJ)

Judas Agrees to Betray Jesus(AK)

22 Now the Festival of Unleavened Bread, called the Passover, was approaching,(AL) and the chief priests and the teachers of the law were looking for some way to get rid of Jesus,(AM) for they were afraid of the people. Then Satan(AN) entered Judas, called Iscariot,(AO) one of the Twelve. And Judas went to the chief priests and the officers of the temple guard(AP) and discussed with them how he might betray Jesus. They were delighted and agreed to give him money.(AQ) He consented, and watched for an opportunity to hand Jesus over to them when no crowd was present.

The Last Supper(AR)(AS)(AT)(AU)(AV)

Then came the day of Unleavened Bread on which the Passover lamb had to be sacrificed.(AW) Jesus sent Peter and John,(AX) saying, “Go and make preparations for us to eat the Passover.”

“Where do you want us to prepare for it?” they asked.

10 He replied, “As you enter the city, a man carrying a jar of water will meet you. Follow him to the house that he enters, 11 and say to the owner of the house, ‘The Teacher asks: Where is the guest room, where I may eat the Passover with my disciples?’ 12 He will show you a large room upstairs, all furnished. Make preparations there.”

13 They left and found things just as Jesus had told them.(AY) So they prepared the Passover.

14 When the hour came, Jesus and his apostles(AZ) reclined at the table.(BA) 15 And he said to them, “I have eagerly desired to eat this Passover with you before I suffer.(BB) 16 For I tell you, I will not eat it again until it finds fulfillment in the kingdom of God.”(BC)

17 After taking the cup, he gave thanks and said, “Take this and divide it among you. 18 For I tell you I will not drink again from the fruit of the vine until the kingdom of God comes.”

19 And he took bread, gave thanks and broke it,(BD) and gave it to them, saying, “This is my body given for you; do this in remembrance of me.”

20 In the same way, after the supper he took the cup, saying, “This cup is the new covenant(BE) in my blood, which is poured out for you.[a] 21 But the hand of him who is going to betray me is with mine on the table.(BF) 22 The Son of Man(BG) will go as it has been decreed.(BH) But woe to that man who betrays him!” 23 They began to question among themselves which of them it might be who would do this.

24 A dispute also arose among them as to which of them was considered to be greatest.(BI) 25 Jesus said to them, “The kings of the Gentiles lord it over them; and those who exercise authority over them call themselves Benefactors. 26 But you are not to be like that. Instead, the greatest among you should be like the youngest,(BJ) and the one who rules like the one who serves.(BK) 27 For who is greater, the one who is at the table or the one who serves? Is it not the one who is at the table? But I am among you as one who serves.(BL) 28 You are those who have stood by me in my trials. 29 And I confer on you a kingdom,(BM) just as my Father conferred one on me, 30 so that you may eat and drink at my table in my kingdom(BN) and sit on thrones, judging the twelve tribes of Israel.(BO)

31 “Simon, Simon, Satan has asked(BP) to sift all of you as wheat.(BQ) 32 But I have prayed for you,(BR) Simon, that your faith may not fail. And when you have turned back, strengthen your brothers.”(BS)

33 But he replied, “Lord, I am ready to go with you to prison and to death.”(BT)

34 Jesus answered, “I tell you, Peter, before the rooster crows today, you will deny three times that you know me.”

35 Then Jesus asked them, “When I sent you without purse, bag or sandals,(BU) did you lack anything?”

“Nothing,” they answered.

36 He said to them, “But now if you have a purse, take it, and also a bag; and if you don’t have a sword, sell your cloak and buy one. 37 It is written: ‘And he was numbered with the transgressors’[b];(BV) and I tell you that this must be fulfilled in me. Yes, what is written about me is reaching its fulfillment.”

38 The disciples said, “See, Lord, here are two swords.”

“That’s enough!” he replied.

Jesus Prays on the Mount of Olives(BW)

39 Jesus went out as usual(BX) to the Mount of Olives,(BY) and his disciples followed him. 40 On reaching the place, he said to them, “Pray that you will not fall into temptation.”(BZ) 41 He withdrew about a stone’s throw beyond them, knelt down(CA) and prayed, 42 “Father, if you are willing, take this cup(CB) from me; yet not my will, but yours be done.”(CC) 43 An angel from heaven appeared to him and strengthened him.(CD) 44 And being in anguish, he prayed more earnestly, and his sweat was like drops of blood falling to the ground.[c]

45 When he rose from prayer and went back to the disciples, he found them asleep, exhausted from sorrow. 46 “Why are you sleeping?” he asked them. “Get up and pray so that you will not fall into temptation.”(CE)

Jesus Arrested(CF)

47 While he was still speaking a crowd came up, and the man who was called Judas, one of the Twelve, was leading them. He approached Jesus to kiss him, 48 but Jesus asked him, “Judas, are you betraying the Son of Man with a kiss?”

49 When Jesus’ followers saw what was going to happen, they said, “Lord, should we strike with our swords?”(CG) 50 And one of them struck the servant of the high priest, cutting off his right ear.

51 But Jesus answered, “No more of this!” And he touched the man’s ear and healed him.

52 Then Jesus said to the chief priests, the officers of the temple guard,(CH) and the elders, who had come for him, “Am I leading a rebellion, that you have come with swords and clubs? 53 Every day I was with you in the temple courts,(CI) and you did not lay a hand on me. But this is your hour(CJ)—when darkness reigns.”(CK)

Peter Disowns Jesus(CL)

54 Then seizing him, they led him away and took him into the house of the high priest.(CM) Peter followed at a distance.(CN) 55 And when some there had kindled a fire in the middle of the courtyard and had sat down together, Peter sat down with them. 56 A servant girl saw him seated there in the firelight. She looked closely at him and said, “This man was with him.”

57 But he denied it. “Woman, I don’t know him,” he said.

58 A little later someone else saw him and said, “You also are one of them.”

“Man, I am not!” Peter replied.

59 About an hour later another asserted, “Certainly this fellow was with him, for he is a Galilean.”(CO)

60 Peter replied, “Man, I don’t know what you’re talking about!” Just as he was speaking, the rooster crowed. 61 The Lord(CP) turned and looked straight at Peter. Then Peter remembered the word the Lord had spoken to him: “Before the rooster crows today, you will disown me three times.”(CQ) 62 And he went outside and wept bitterly.

The Guards Mock Jesus(CR)

63 The men who were guarding Jesus began mocking and beating him. 64 They blindfolded him and demanded, “Prophesy! Who hit you?” 65 And they said many other insulting things to him.(CS)

Jesus Before Pilate and Herod(CT)(CU)(CV)

66 At daybreak the council(CW) of the elders of the people, both the chief priests and the teachers of the law, met together,(CX) and Jesus was led before them. 67 “If you are the Messiah,” they said, “tell us.”

Jesus answered, “If I tell you, you will not believe me, 68 and if I asked you, you would not answer.(CY) 69 But from now on, the Son of Man will be seated at the right hand of the mighty God.”(CZ)

70 They all asked, “Are you then the Son of God?”(DA)

He replied, “You say that I am.”(DB)

71 Then they said, “Why do we need any more testimony? We have heard it from his own lips.”

23 Then the whole assembly rose and led him off to Pilate.(DC) And they began to accuse him, saying, “We have found this man subverting our nation.(DD) He opposes payment of taxes to Caesar(DE) and claims to be Messiah, a king.”(DF)

So Pilate asked Jesus, “Are you the king of the Jews?”

“You have said so,” Jesus replied.

Then Pilate announced to the chief priests and the crowd, “I find no basis for a charge against this man.”(DG)

But they insisted, “He stirs up the people all over Judea by his teaching. He started in Galilee(DH) and has come all the way here.”

On hearing this, Pilate asked if the man was a Galilean.(DI) When he learned that Jesus was under Herod’s jurisdiction, he sent him to Herod,(DJ) who was also in Jerusalem at that time.

When Herod saw Jesus, he was greatly pleased, because for a long time he had been wanting to see him.(DK) From what he had heard about him, he hoped to see him perform a sign of some sort. He plied him with many questions, but Jesus gave him no answer.(DL) 10 The chief priests and the teachers of the law were standing there, vehemently accusing him. 11 Then Herod and his soldiers ridiculed and mocked him. Dressing him in an elegant robe,(DM) they sent him back to Pilate. 12 That day Herod and Pilate became friends(DN)—before this they had been enemies.

13 Pilate called together the chief priests, the rulers and the people, 14 and said to them, “You brought me this man as one who was inciting the people to rebellion. I have examined him in your presence and have found no basis for your charges against him.(DO) 15 Neither has Herod, for he sent him back to us; as you can see, he has done nothing to deserve death. 16 Therefore, I will punish him(DP) and then release him.” [17] [d]

18 But the whole crowd shouted, “Away with this man! Release Barabbas to us!”(DQ) 19 (Barabbas had been thrown into prison for an insurrection in the city, and for murder.)

20 Wanting to release Jesus, Pilate appealed to them again. 21 But they kept shouting, “Crucify him! Crucify him!”

22 For the third time he spoke to them: “Why? What crime has this man committed? I have found in him no grounds for the death penalty. Therefore I will have him punished and then release him.”(DR)

23 But with loud shouts they insistently demanded that he be crucified, and their shouts prevailed. 24 So Pilate decided to grant their demand. 25 He released the man who had been thrown into prison for insurrection and murder, the one they asked for, and surrendered Jesus to their will.

The Crucifixion of Jesus(DS)

26 As the soldiers led him away, they seized Simon from Cyrene,(DT) who was on his way in from the country, and put the cross on him and made him carry it behind Jesus.(DU) 27 A large number of people followed him, including women who mourned and wailed(DV) for him. 28 Jesus turned and said to them, “Daughters of Jerusalem, do not weep for me; weep for yourselves and for your children.(DW) 29 For the time will come when you will say, ‘Blessed are the childless women, the wombs that never bore and the breasts that never nursed!’(DX) 30 Then

“‘they will say to the mountains, “Fall on us!”
    and to the hills, “Cover us!”’[e](DY)

31 For if people do these things when the tree is green, what will happen when it is dry?”(DZ)

32 Two other men, both criminals, were also led out with him to be executed.(EA) 33 When they came to the place called the Skull, they crucified him there, along with the criminals—one on his right, the other on his left. 34 Jesus said, “Father,(EB) forgive them, for they do not know what they are doing.”[f](EC) And they divided up his clothes by casting lots.(ED)

35 The people stood watching, and the rulers even sneered at him.(EE) They said, “He saved others; let him save himself if he is God’s Messiah, the Chosen One.”(EF)

36 The soldiers also came up and mocked him.(EG) They offered him wine vinegar(EH) 37 and said, “If you are the king of the Jews,(EI) save yourself.”

38 There was a written notice above him, which read: this is the king of the jews.(EJ)

39 One of the criminals who hung there hurled insults at him: “Aren’t you the Messiah? Save yourself and us!”(EK)

40 But the other criminal rebuked him. “Don’t you fear God,” he said, “since you are under the same sentence? 41 We are punished justly, for we are getting what our deeds deserve. But this man has done nothing wrong.”(EL)

42 Then he said, “Jesus, remember me when you come into your kingdom.[g](EM)

43 Jesus answered him, “Truly I tell you, today you will be with me in paradise.”(EN)

The Death of Jesus(EO)

44 It was now about noon, and darkness came over the whole land until three in the afternoon,(EP) 45 for the sun stopped shining. And the curtain of the temple(EQ) was torn in two.(ER) 46 Jesus called out with a loud voice,(ES) “Father, into your hands I commit my spirit.”[h](ET) When he had said this, he breathed his last.(EU)

47 The centurion, seeing what had happened, praised God(EV) and said, “Surely this was a righteous man.” 48 When all the people who had gathered to witness this sight saw what took place, they beat their breasts(EW) and went away. 49 But all those who knew him, including the women who had followed him from Galilee,(EX) stood at a distance,(EY) watching these things.

The Burial of Jesus(EZ)

50 Now there was a man named Joseph, a member of the Council, a good and upright man, 51 who had not consented to their decision and action. He came from the Judean town of Arimathea, and he himself was waiting for the kingdom of God.(FA) 52 Going to Pilate, he asked for Jesus’ body. 53 Then he took it down, wrapped it in linen cloth and placed it in a tomb cut in the rock, one in which no one had yet been laid. 54 It was Preparation Day,(FB) and the Sabbath was about to begin.

55 The women who had come with Jesus from Galilee(FC) followed Joseph and saw the tomb and how his body was laid in it. 56 Then they went home and prepared spices and perfumes.(FD) But they rested on the Sabbath in obedience to the commandment.(FE)

Footnotes

  1. Luke 22:20 Some manuscripts do not have given for you … poured out for you.
  2. Luke 22:37 Isaiah 53:12
  3. Luke 22:44 Many early manuscripts do not have verses 43 and 44.
  4. Luke 23:17 Some manuscripts include here words similar to Matt. 27:15 and Mark 15:6.
  5. Luke 23:30 Hosea 10:8
  6. Luke 23:34 Some early manuscripts do not have this sentence.
  7. Luke 23:42 Some manuscripts come with your kingly power
  8. Luke 23:46 Psalm 31:5