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न तो कोई बोली है, और न तो कोई भाषा,
    जहाँ उसका शब्द नहीं सुनाई पड़ता।
उसकी “वाणी” भूमण्डल में व्यापती है
    और उसके “शब्द” धरती के छोर तक पहुँचते हैं।

उनमें उसने सूर्य के लिये एक घर सा तैयार किया है।
    सूर्य प्रफुल्ल हुए दुल्हे सा अपने शयनकक्षा से निकलता है।
सूर्य अपनी राह पर आकाश को पार करने निकल पड़ता है,
    जैसे कोई खिलाड़ी अपनी दौड़ पूरी करने को तत्पर हो।

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